Monday, November 23, 2009

मुरथल का सफ़र

भाई फंडू था, कमाल था,
भई मुरथल का सफ़र तो धमाल था।

सुबह शार्प नौ बजे मिलना,
घर से मस्तानो की तरह चलना,
टेंशन दूसरो के लिए छोड़ना,
गाड़ी को मुरथल की और मोड़ना,
फंडू था, कमाल था,
भई मुरथल का सफ़र तो धमाल था।


कभी मिक्स तो कभी आलू,
पनीर भी कम नही था चालू,
सफ़ेद मक्खन की बालू,
चाहू भी तो किसे में, न कहकर तालू?

फंडू था, कमाल था,
भई मुरथल का सफर तो बड़ा कमाल था।

ठंडी खीर ने रंग जमाया,
बाद में चाय का नम्बर भी आया,
बड़ी होती बौल का चक्कर समझ में आया,
डी वी डी की खरीदारी ने विराम चिन्ह लगाया,
फंडू था, कमाल था,
भई मुरथल का सफर तो बड़ा ही डमाल था।


सफर अधूरा रहता, गर शौपिंग न होती,
वेक अप सिद न होती,
चावमीन और सूप की बोछार न होती,
वो डीफेनस कालोनी की वेन न होती,

फंडू था, कमाल था,
अरे मेरे भई, मुरथल का सफर तो बड़ा ही धमाल था।

मिलता है मोका नसीब वालो को,
केवल हरियाणा में काम करने वालो को,
रोना आयेगा दिल्ली गाजियाबाद वालो को,
मजा तो आयेगा ही मुरथल जाने वालो को,

भई, फंडू था, कमाल था,
अब तो मान ही लो, मुरथल का सफर धमाल था।

- प्रीति बिष्ट सिंह

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