Tuesday, November 30, 2010

ओह! मेरी यह तमन्नाएं

कैसे उत्साहित हो उछल जाती है,
जब भी कुछ नया-सा घटता पाती,
आँखें और छोड़ी हो जाती है,
हर बार जब यह नया रस चखती है,
ओह! मेरी यह बचपने भरी तमन्नाएं.

हर सुबह एक नया जोश लाती है,
जब सूरज की किरणें मुझे छूती है,
तासीर उसकी मुझमें गर्मी भर जाती,
गर्म जोशी और जोश भर जाती,
ओह! मेरी यह रंगबिरंगी तमन्नाएं.

खुले आकाश में गोते लगाती,
चिड़ियों सी पंख पसार कहीं दूर उड़ जाती,
उस नगर में जहाँ सिर्फ प्यार है,
हमदर्दी और भाईचारे की बहार है,
ओह! मेरी यह बचकानी तमन्नाएं.

बारिश की बूंदों में रूमानी हो जाती,
मिटटी की खुशबु में डूब जाती,
दिल में जैसे कोई गुदगुदी कर जाती,
मनो कोई ठंडी ऊँगली छू जाती,
ओह! मेरी ये रंगीन तमन्नाएं.

सिसक कर आँखों से लुडक जाती,
जब दम घुटने से यह मर जाती,
हर बार लगता अब कुछ नहीं है आगे,
कैसे हम जिन्दगी से नज़र बचा कर भागे,
ओह! मेरी यह हताश होती तमन्नाएं.

तमन्नाएं मेरी यह प्यारी तमन्नाएं,
न ख़त्म होने वाली यह तमन्नाएं,
तुम संग मेरे जीवन में रंग है,
तुम हो तो मुझ में उमंग है,
ओह! मुझे छोड़ का न जाना मेरी तमन्नाएं.

मेरी प्यारी तमन्नाएं.

- प्रीति बिष्ट सिंह
(01 दिसम्बर, 2010)

Friday, October 8, 2010

कैसे लिखूं

मेरे मित्रों को लगता है कि मुझे अपनी कविताओं में थोड़ी गंभीरता लानी चाहिए. अपनी इसी विवशता को अपनी इस कविता में मैं लिख रही हूँ.


सब चाहे कुछ ऐसा लिखूं, जिसमें शब्दों का भार रहें,
शब्दों में अर्थों की बाढ़ लिए, भावों की सुन्दर झंकार रहें.

पर लिख न पाऊ कुछ भी मैं, कैसे शब्दों का हार बुनूं,
शब्द तो मुझे तुम दे दोगे, पर भावों की कैसे बौछार करूँ.

जो शब्द न मेरे है दिल के, उनको कैसे महसूस करूँ,
कैसे अपनी कलम से मैं, इन रंगीन चित्रों में जीवन दूँ.

जैसे बिन मिटटी को छुएं, कुम्हार घड़े को आकर न दें,
जैसे बिन बाती के, दीपक की ज्योति न जलें.

फिर कैसे मैं लिख दूँ, जो चाहते हो तुम मुझसे लिखवाना,
जिस दर्द, भाव का अहसास नहीं, आसान नहीं है उस पर लिख पाना.

प्रीति बिष्ट सिंह
(09 अक्तूबर 2010)

Thursday, September 23, 2010

अब न आना तुम कीचड़









कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़,
ओफ! कितना गन्दा है यह कीचड़.

सुबह निकालो तो कीचड़,
शाम को आओ तो कीचड़,
जहाँ तक हमारी जाएँ नज़र,
वहाँ पर फैला पायें कीचड़.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

सड़क का सिंगार है ये,
बारिश की पहचान है ये,
जमा सीवर पानी है जहां,
कीचड़ ने जनम लिया वहां.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

कभी हरा तो कभी पिला,
कभी सडा तो कभी गिल-गिला,
पाँव पड़ते ही लपट जाएँ,
कपड़ों में भी झटक जाएँ.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

मामूली न समझे इसे,
रखें पैर ज़रा इसमें कसे,
वरना इसके  जाल में फंस जायेंगे,
कीचड़ में रपटते नज़र आयेंगे.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

करते है वार चुपके से ये,
हथियार बनायें गाडी को ये,
पैर से सिर तक फ़ैल जाएँ,
कीचड़ जो एक बार उछल जाएँ.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

गड्ढा है दोस्त इसका,
खेल खेले यह रिस्क का,
गाड़ियों के नीचे यह कुचलता,
पर पैदल चलने वालों को यह चुनता.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

कीचड़ बिन जिन्दगी नीरस,
इससे बढ़ता आपमें धीरज,
हो जाती है थोड़ी सी एक्सरसाइज़,
पर कम नहीं होती है वेस्ट साइज़.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

काश! यह कीचड़ मर जाएँ,
गड्ढे भी पूरी तरह भर जाएँ,
सड़क का रुका ट्रैफिक चल जाएँ,
जिन्दगी सबकी सुधर जाएँ.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
करते थे पैरों को पिचड़-पिचड़.
अब न आना तुम कीचड़,
कीचड़, कीचड़, कीचड़.

- प्रीति बिष्ट सिंह (23 सितम्बर,2010)

Saturday, September 18, 2010

टैम्पू ट्रैवलर और बारह सवारी

यह कविता, ख़ास मेरे दोस्तों के लिए. कोर्बेट का यह सफ़र बहुत सी यादें लेकर आया था... शायद हमने अपने जिन्दगी में इतनी मस्ती कभी भी नहीं की थी.. मेरे फिस्सडी गैंग के दोस्तों, मैं इस सफ़र को कभी नही भूल पाऊँगी..................

सुनहरे सफ़र की, हमने की थी तैयारी,
बड़ी मुश्किलों से मगर बची जान प्यारी,
बने हम यूँ देखो खतरों की खिलाड़ी,
एक टैम्पू ट्रैवलर और उसमें बारह सवारी.

फिस्सडी गैंग हुआ, फिर देखो पागल,
बहार घुमने की ललक मन में जागल,
लिखे मेल पे, मेल पे, मेल हर दिन,
फिर फाइनल हुआ अंत में जाकर इक दिन.

छुट्टी की लोचे का साया फिर आया,
नाकामयाबी का अहसास और गहराया,
पर झूठ को, कौन है जो पकड़ पाया,
हर किसी ने फिर झूठ पे दांव लगाया.

मिल गयी छुट्टी, सबको यकीन न हुआ,
लेकिन जो भी हुआ अच्छा ही हुआ,
चलो कुछ दिन ही सही, मिल गयी हमें मुक्ति,
रोज की किचकिच और झिकझिक से छुट्टी.

चौखटों पे थी सौ वोल्ट की स्माइल,
किये एक दूसरे को फोन पे फोन डायल,
मिले लोदी कोलोनी में, कब के हम बिछड़े,
अलका और राजू का दिल अभी भी हिचके.

नामुमकिन सा हो गया आना उनका,
बाकियों का दिन रोया इसपर तुनका,
टैम्पू ट्रैवलर में बैठे, कुछ सोच लिए जाकर,
पता था कुछ न कुछ, नया सुनाएंगे आकर.

नारियल नहीं सीटियों ने किया आरम्भ,
कोर्बेट सफ़र का हो गया शुभारम्भ,
बुरी नज़र से बचाए हमको भगवान,
यह क्या! लो फिर शुरू हो गया बेसुरा गान.

मुन्नी न जाने कितनी बदनाम हुई,
पी-लू, की रट से शाम से रात हुई,
ग्रास की कशों का दौर चल गया,
हम खुश थे क्यूंकि मस्ती का चक्कर चल गया.

सुबह की मीठी मीठी धूप है आई,
3 सितम्बर का, वो दिन साथ है लायी,
पानी का झरना हमें अपनी और खिंच ले गया,
मौत को मस्ती समझने की गलती कर गया.

झरने के बीच में जाकर बस गई रुक,
होने लगी दिल में बड़ी ही धुक-धुक,
हमारे लड़कों  ने फिर कमान है थामी,
बस को बहार निकलने की मन में ठानी.

पर कहानी में एक ट्विस्ट है आया,
झरना अचानक से नदी सा नज़र आया,
ड्राईवर ने गाड़ी से उतरने का मन बनाया,
मझधार में हम लड़कियों को छोड़ वो आया.

मानसी और मेरी हालत हो गयी ख़राब,
पानी का बहाव देखने वाला था जनाब,
रितु तो नदी पार ही कर जाएगी,
पर हमारी जिन्दगी क्या पार लग पायेगी.

कांपते पैरों ने फिर पानी को छुआ,
डरते हुए क़दमों में कुछ तो हुआ,
स्लिप होते कदम और लड़खडाएं,
गावं वाले भैया फिर भगवान बन कर आयें.

हम लड़कियां तो अब सेफ हो गयी,
लगा आज मौत से भेट हो गयी,
जोर से फिर एक आवाज है आई,
सन्नी नहीं मिल रहा है भाई.

भीड़ में आँखे कुछ तलाशने लगी,
लड़कों को पानी में देख सांस हांफने लगी,
चलो अब तो लडकें भी पानी से बहार आयें,
लो, विडिओ बनता सन्नी भी नज़र आयें.

बाहर आ गयी बारह सवारी,
पर पानी में डोलती रही टैम्पू ट्रैवलर बेचारी,
हर सैंकंड लगता आज यह डूबेगी,
पानी के सतह तक को यह छू लेगी.

जद्दोजहद के बाद वह भी उबर आई,
पानी में नहा कर टैम्पू की जान बच पाई,
लंबी सांस लेकर ईश्वर को किया याद,
पानी में भीगने की बुझ गयी सबकी प्यास.

बहुत फ़िल्मी लग रहा था सबकुछ,
तभी कैमरा और माइक लिए रुक-रुक,
एक सज्जन हमारे समीप है आयें,
बोले, टीवी के लिए बाईट देते जाएँ.

राजीव, गौरव, राहुल, इनु और सन्नी,
बातें कर रहें थे इतनी फन्नी फन्नी,
ऐसा लगता था घूम कर मेला है आयें,
कौन कह सकता है जान बचा कर है आयें.

लो, बस इनकी ही थी कमी,
अमर उजाला वाले भी थे वही,
कब फोटो वो, हमारी खिंच ले गए,
कल के पेपर का हमें हीरो बना गए.

घंटों के इंतज़ार कर पहुँच गए हम,
नाश्ते पे कूदे भूखे नंगे से हम,
बोलीबाल और स्विमिंग फिर से छाया,
अब पानी फिर से दिल को है भाया.

इस बार विकास बना है शिकार,
कोई उसके टैन्ट, से न जाने को तैयार,
गप्पबाजी इक बार जो, स्टार्ट हो गयी,
समझ लो हार्दिक की, वो रात हो गयी.

अगली सुबह फिर वहीं बोलीबाल,
जंगल सफारी और डर से वौर,
शेर जी भी हुए हम पे मेहरबान,
आज बने वो हमारे मेहमान.

फिर रात को तेज बारिश है आई,
वैट 69 और वोडका है छाई,
लटको-झटको का लेकर साथ,
मोहिनी आई है हमारे पास.

सर फूटने के डर से डरता राहुल,
बजाये बैंड हर गाने पर आउल,
जूते गिले थे इसलिए हिल न सका,
सन्नी के जाल में फिर वो फंसा.

मस्ती के साथ हो गयी आधी रात,
अरे! अभी विकास के टैन्ट में भी तो करनी है बात,
हार्दिक की बक बक पर नाचे सबके हार्ट,
लो फिर मिल गयी गप्पों को नयी स्टार्ट.

फिर आई देखो जोरों की निनी,
क्यों न ले ले इक छोटी नैप मिनी,
मुई सुबह आज जल्दी ही हो गयी,
फिल्म हैप्पी एंड पर है पहुँच गयी.

बैग पैक कर, चल दिए सब,
फिर से नोर्मल जिन्दगी जीनी है अब,
ताश के पत्ते भी वापसी में निकले,
कोई न कोई तो यहाँ आज बिक ले.

तड़का लगाया हमने तडके पर,
आग बुझाई है हमने पेट की अब,
दिल्ली और करीब सा आ गया,
सीरियसनेस का भूत फिर से छा गया.

जल्दी बनाना है नैक्स्ट प्लान,
किया सबने मिलकर ये ऐलान,
अब तो फिर मेल पे, मेल डलेंगें,
दिसंबर तक तो यह खेल खेलेंगे.

पता नही कब हम दुबारा जायेंगे,
पर जब भी जायेंगे मज़ा कर आयेंगे,
फिस्सडी गैंग, हम है खतरों के खिलाड़ी,
और इस बार है दोस्तों, गोवा की बारी.

- प्रीति बिष्ट सिंह (18 सितम्बर, 2010)

Wednesday, September 1, 2010

बस से मैट्रो तक

हंसी आती है मुझे उन दिनों को याद कर,
चंद रोज़ पहले की उस बचकानी बात पर,
कैसे दिल मेरा डर से देहल जाता था,
जब मेरे घर जाने का समय करीब आता था.

खो जाती थी मैं कल्पना के आकाश में,
कभी सुपरमैन तो कभी स्पाइडर मैन के भेस में,
एक ईमारत से दूसरी पर छलांग लगाती,
चंद सैकंड में हवा में घूम घर पहुँच जाती.

पर दो सैकंड की कल्पना मेरी ढेर हो जाती,
जब मैं अपने आपको रेडलाइट-चौराहे पर पाती,
कभी आगे तो कभी पीछे भागती नजर आती,
इक सैकंड में हवा से जमीन पर अपने को पाती.

नज़रें बस, बसों के नेम प्लेट तलाशती,
हर बस मुझे अपने रूट की नज़र आती,
कई बार इसी वहम में गलत बस में चढ़ जाती,
कुछ डांट-फटकार सुन अगले स्टैंड पर उतर जाती.

अपनी आँखों को कोस फिर वापस आ जाती,
एक बार फिर अपने को वहीं चौराहे पर फंसा पाती,
खाली बस देखते ही दिल खुश हो जाता,
पर दूसरे ही मिनट बस ख़राब का अहसास डरा जाता.

हर रोज़ कुछ नया नवेला सा घटता था,
अजब सी कहानियां लिए अनुभव बढ़ता था,
फिर इक दिन इस पर विराम लग गया,
फुर्ती से दौडती मैट्रो का सफ़र आराम बन गया.

अब न तो बस की वो गन्दी घिचपिच है,
न वो पसीने की बदबू, न वो  चिकचिक है,
ट्रैफिक जाम से अब हमें क्या लेना-देना,
बस चंद सैकंड का आरामभरा सफ़र और घर पहुचना.

मैट्रो हम जैसी जिंदगियों में अवतार बनकर है आई,
ट्रैफिक जाम से बचा इसी ने है नैया पार लगाई,
पर आज न जाने क्यों मुझे सफदरजंग बस की याद आई,
कुछ भी हो मगर बस ने हमेशा मेरी मदद की थी भाई.

- प्रीति बिष्ट सिंह ( 01 सितम्बर, 2010)

Tuesday, August 17, 2010

इंतज़ार

बस, चंद घंटों की ही तो है बात,
पल भर की दूरी है फिर वही साथ,
फिर भी दिल है की मानता नहीं,
दिल दिमाग की इक सुनता ही नहीं.

जानती हूँ कि बस कल भर की ही तो बात है,
उसके बाद तो फिर वही तुम्हारा साथ है.

समय है जो कि कटता ही नहीं,
ध्यान है जो कहीं बंटता ही नहीं,
अचानक से जिन्दगी यूँ उदास हो चली,
हर पर लगता, जिन्दगी मेरी निराश हो गयी.

जानती हूँ कि बस कल भर की ही तो बात है,
उसके बाद तो फिर वही तुम्हारा साथ है.


दिलो-दिमाग, जिस्म यूँ अलग दिशा में भागे,
जैसे ढील दी गयी पतंग हवा के संग नाचे,
सब कर रहे है अपनी-अपनी मनमानी,
पर तेरे बिन जिन्दगी जीना भी तो है बेमानी.

जानती हूँ कि बस कल भर की ही तो बात है,
उसके बाद तो फिर वही तुम्हारा साथ है.

पता नहीं तुम क्या सोचते होंगे,
क्या तुम भी ख्यालों में मुझे खोजते होंगे,
या तुम अपनी व्यस्तता में इतने व्यस्त हो,
कि मेरे बिन जिन्दगी जीने में, बन गए अभ्यस्त हो.
 
जानती हूँ कि बस कल भर की ही तो बात है,
उसके बाद तो फिर वही तुम्हारा साथ है.
 
अब तो बस मुझे है कल का इंतज़ार,
घडी की सुइयां भी चलने से न करे इंकार,
बस जल्दी से कल का दिन आ जाएँ,
मुझे तुम्हारा फिर वहीं साथ मिल जाएँ.
 
जानती हूँ कि बस अब कुछ पलों की ही बात है,
आज का दिन बिता, बस अब इक रात है.
 
- प्रीति बिष्ट सिंह (17 अगस्त, 2010)

Friday, August 13, 2010

असमंजस

जीवन की मझधार में देखो फंस गए,
अब क्या करे असमंजस में है पड़ गए.

किस राह का चुनाव करें,
किस विचार का समर्थन,
किस डगर के मुसाफिर बने,
चल रहा है दिल में मंथन.

एक गलत निर्णय के बोझ का डर ,
खा रहा है मुझे भीतर ही भीतर,
मेरे चुनाव पर टिकी सबकी एकटक नजर,
डर है कहीं कदम न हो मेरे इधर-उधर.

निर्णय इसके, उसके, सबके पक्ष में हो,
समाज और सभ्यता के विपक्ष न हो,
सोचती हूँ बैठकर एक बार को,
निर्णय मैं सबके लिए क्यों ले रही हूँ इस बार को.

क्यों मेरे निर्णय, मेरे लिए नही,
मैं अपने बारें में क्यों सोच सकती नही,
क्यों हर बार मुझसे उम्मींद लगायी जाती,
क्यों मुझे ही समाज की दुहाई दी जाती.

मैं, मेरा, मेरे लिए क्यों मृत है,
क्यों मेरा जीवन त्रस्त होकर भी तृप्त है,
क्यों मैं अपने बारें में सोचती नहीं,
मेरे भी इच्छाएं पंख होकर क्यों उडती नहीं.

शायद बेड़ियाँ है पाँव में मेरे,
शायद दिल में है पड़े घाव मेरे,
फिर भी निर्णय तो लेना ही होगा,
अपने को भूल समाज को सम्मान देना ही होगा.

मैं कुछ भी नहीं किसी के  लिए,
मेरा आत्मसम्मान है बलिदान के लिए,
काश इक बार फिर मिलता निर्णय का मौका,
मुझे भी मिल जाता जीवन जीने का मौका.

- प्रीति बिष्ट सिंह
(13 अगस्त, 2010)

Tuesday, February 23, 2010

सच नौकरी का

मुझे उमींद है की आप मुझसे यह सवाल बिलकुल नही करेंगे की मैंने यह कविता क्यूँ लिखी है? "नौकरी" हम सभी के जीवन का एक अहम् मुद्दा है. आइये जानते है की हम "नौकरी" क्यूँ करना चाहते है.

सच नौकरी का

"नो" करते हुए भी जो करी,
उसे कहते है हम "नौकरी".

इसका भी खेल है बड़ा अजब,
दिखाती है दिन यह बड़े ही गजब,
अत्याचारों का है यह सबब,
इसका नही है कोई भी मजहब.

"नो" करते हुए भी जो करी,
उसे कहते है हम "नौकरी".

जब ढूढ़ो तो यह मिलती नहीं,
गर मिले तो यह जमती नहीं,
जो है वह तो चलती नहीं,
गुजारा यह किसी का करती नहीं.

फिर भी "नो" करते हुए भी करी,
जिसे कहते है हम "नौकरी".

बड़ी चमत्कारी है यह नौकरी,
इज्जत की पिटारी है यह नौकरी,
माँ-बाप का दुलारा बनाती यह नौकरी,
पत्नी का भी प्यार दिलाती है यह नौकरी.

इसलिए तो "नो" कहकर भी मैंने करी,
जिसे हम सभी कहते है नौकरी.

एक बार छुट जाये जो इसका साथ,
दुबारा न आयें यह किसी के हाथ,
याद रहे हर दम यह पते की बात,
केसी भी हो न मारो नौकरी को लात.

वरना बाद में पछताओगे,
इज्जत पाने को तरस जाओगे,
उपर से नाकारा की उपाधि भी पाओगे,
लोगो के पैर पड़ते नजर आओगे,

इसलिए चाहे "न" कह या "हाँ "कह करी,
मैंने तो बस पकड़ी रही अपनी यह "नौकरी".

- प्रीति बिष्ट सिंह

क्या आप संतुष्ट है?

वेसे तो अप्रेजल इतनी आसानी से होता नही है... मगर यदि हो जाये तब भी हम शान्ति से बैठ नहीं पते है... हमेशा यही लगता है की सिर्फ मेरा अप्रेजल ही बेकार हुआ है.. और दूसरों का अच्छा... इसी उधेड़ बुन की कहानी इस कविता में है.

क्या आप संतुष्ट है?

अप्रेजल के बाद,
होता है ऐसा हाल,
एक ही सवाल,
उठे है बार-बार,
क्या आप संतुष्ट है, मेरे यार?

मुंह का झोल,
भोंहो की धार,
स्थिति है लाचार,
कहे है बार-बार,
मैं संतुष्ट नहीं हूँ, मेरे यार.

परसेंट है कितना,
फिगर बढ़ा कितना,
दूसरे का पता,
चल जाएँ एक बार,
क्या वो संतुष्ट है, मेरे यार?

करें तांक झांक,
यूँ करें, पूछताछ,
किसने पाया ज्यादा,
बता दे एक बार,
क्यूंकि मैं संतुष्ट नहीं हूँ, मेरे यार.

सस्पेंस है गहरा,
चेहरे पर है चेहरा,
कोई नही बताता,
लगा है ऐसा पहरा,
क्या कोई संतुष्ट भी है, मेरे यार?

अप्रेजल का डेरा,
ऐसा है खेला,
सभी को इसने है पेला,
कहे हर एक चेहरा,
मैं संतुष्ट नही हूँ, मेरे यार.
मैं संतुष्ट नही हूँ, मेरे यार.

- प्रीति बिष्ट सिंह

Sunday, February 21, 2010

"खेल अप्रेजल का"

(हर बार नए फैनेंशियल इयर की शुरुआत में अक्सर ऑफिसों में अप्रेजल की बात चलने लगती है. और इसी अप्रेजल की बात के साथ शुरू हो जाता है अप्रेजल का खेल. मेरी अगली कविता कुछ यहीं बयान कर रही है.)

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.


फाइलों का ढेर लगता है अपना,
ऑफिस का माहोल लगता है सपना,
टाइम पर आना, टाइम पर जाना,
आज का काम आज ही निपटाना.

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

नींद नहीं केवल जोश है दिखता,
टाई और पेंट  में हर कोई दिखता,
रूल्स का तोडना इतिहास हो गया,
रूल्स फोलो करना हॉट हो गया,

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

हैरान है सब एक दुसरे को देख,
परेशान है वों क्यूँ है मुझसे ज्यादा नेक,
अरे भाई यह तो अप्रेजल का खेल है,
तभी तो बेमेलों में भी दिखता मेल है.

सभी को आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ सभी का दिल बेकरार हुआ.

लगता है इस साल लक्ष्मी बरसेगी,
छप्पर नहीं तो नल से टपकेगी,
साथ वाले की आँखे कब झपकेगी,
कब मेरी किस्मत उससे ज्यादा चमकेगी,

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

बस इस बार नैया पार हो जाये,
थोड़ी सी लक्ष्मी और बढियां डेसिगनेशन मिल जाये,
फिर देखना में क्या कमाल करूंगा,
पिछले साल की तरह आराम करूँगा,
अगले साल फिर मैं ऑफिस से प्यार करूँगा,
नए अप्रेजल में ही जाकर दिल बेकरार करूँगा.

- प्रीति बिष्ट सिंह

Thursday, January 14, 2010

हीरो होंडा का सफ़र

मेरा ऑफिस जिस जगह पर है, उस जगह का नाम हीरो होंडा चौक है. ये जगह गुडगाव में पडती है. मैंने जिस दिन से इस ऑफिस में ज्वाइन किया था उस दिन से ही नही बल्कि कई सालो पहले से ही यहाँ की रोड्स का बुरा हाल था. वो कहते है की मुसीबतें कभी भी अलग अलग नही हीरो है. बस मेरे साथ भी वही हुआ... एक तो रोअड्स ने बुरा हाल कर रखा था और उस पर ऑफिस की अटेंडेंस का पंगा. अगर आप एक मिनट भी लेट क्या हुए की हाफ डे लग गया. ऐसे में हर रोज लेट आने की तलवार सर पर हमेशा ही लटकती रहती है. मैंने अपनी इसी आप बीती को शब्दों में बाँधा है, जरा गौर फरमाए....................

हीरो होंडा का सफ़र

घडी में बज रहे थे सात,
आ गयी मुझको तो नानी याद.

भागम भाग में हुए तेयार,
मगर मिस हो गयी गयी बस, फिर से यार.

जेसे-तेसे हम पहुच गए बस अड्डे,
जानते हुए भी की रास्ते में बड़े ही गड्ढे,
हमने झट से भरे ऑटो में घुसकर जगह बनाई,
मगर टेडी-मेढ़ी सड़क से जान पर बन आई.

ऐसे-तेसे हीरो होंडा पहुचे ही गए,
पर ये क्या! सुबह के नो बजने को आये,
हमने वही से ऑफिस की दोड लगायी,
तब दिल भी धड़का और आवाज भराई.

घड़ी की सुई नो के पार चढ़ी,
आज फिर हाफ डे की मार पड़ी
आँख खुली तो नजरे घडी से टकराई
सुबह के छह बजे है, तब जाकर जान में जान आई.

प्रीति बिष्ट सिंह