Tuesday, February 23, 2010

सच नौकरी का

मुझे उमींद है की आप मुझसे यह सवाल बिलकुल नही करेंगे की मैंने यह कविता क्यूँ लिखी है? "नौकरी" हम सभी के जीवन का एक अहम् मुद्दा है. आइये जानते है की हम "नौकरी" क्यूँ करना चाहते है.

सच नौकरी का

"नो" करते हुए भी जो करी,
उसे कहते है हम "नौकरी".

इसका भी खेल है बड़ा अजब,
दिखाती है दिन यह बड़े ही गजब,
अत्याचारों का है यह सबब,
इसका नही है कोई भी मजहब.

"नो" करते हुए भी जो करी,
उसे कहते है हम "नौकरी".

जब ढूढ़ो तो यह मिलती नहीं,
गर मिले तो यह जमती नहीं,
जो है वह तो चलती नहीं,
गुजारा यह किसी का करती नहीं.

फिर भी "नो" करते हुए भी करी,
जिसे कहते है हम "नौकरी".

बड़ी चमत्कारी है यह नौकरी,
इज्जत की पिटारी है यह नौकरी,
माँ-बाप का दुलारा बनाती यह नौकरी,
पत्नी का भी प्यार दिलाती है यह नौकरी.

इसलिए तो "नो" कहकर भी मैंने करी,
जिसे हम सभी कहते है नौकरी.

एक बार छुट जाये जो इसका साथ,
दुबारा न आयें यह किसी के हाथ,
याद रहे हर दम यह पते की बात,
केसी भी हो न मारो नौकरी को लात.

वरना बाद में पछताओगे,
इज्जत पाने को तरस जाओगे,
उपर से नाकारा की उपाधि भी पाओगे,
लोगो के पैर पड़ते नजर आओगे,

इसलिए चाहे "न" कह या "हाँ "कह करी,
मैंने तो बस पकड़ी रही अपनी यह "नौकरी".

- प्रीति बिष्ट सिंह

5 comments:

  1. sahi baat kahi hai apne....aapka lekhan sachayee ke sath rochakta liye hai

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  2. bahoot khoob. shandaar, dhanywaad

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  3. Awesome preeto....tu kahan chupi thi abhi tab....mazza aa gaya..sach mein ye apni si kahani lagti hai...preeto u ROCK!!!

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