Thursday, September 23, 2010

अब न आना तुम कीचड़









कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़,
ओफ! कितना गन्दा है यह कीचड़.

सुबह निकालो तो कीचड़,
शाम को आओ तो कीचड़,
जहाँ तक हमारी जाएँ नज़र,
वहाँ पर फैला पायें कीचड़.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

सड़क का सिंगार है ये,
बारिश की पहचान है ये,
जमा सीवर पानी है जहां,
कीचड़ ने जनम लिया वहां.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

कभी हरा तो कभी पिला,
कभी सडा तो कभी गिल-गिला,
पाँव पड़ते ही लपट जाएँ,
कपड़ों में भी झटक जाएँ.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

मामूली न समझे इसे,
रखें पैर ज़रा इसमें कसे,
वरना इसके  जाल में फंस जायेंगे,
कीचड़ में रपटते नज़र आयेंगे.

कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

करते है वार चुपके से ये,
हथियार बनायें गाडी को ये,
पैर से सिर तक फ़ैल जाएँ,
कीचड़ जो एक बार उछल जाएँ.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

गड्ढा है दोस्त इसका,
खेल खेले यह रिस्क का,
गाड़ियों के नीचे यह कुचलता,
पर पैदल चलने वालों को यह चुनता.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

कीचड़ बिन जिन्दगी नीरस,
इससे बढ़ता आपमें धीरज,
हो जाती है थोड़ी सी एक्सरसाइज़,
पर कम नहीं होती है वेस्ट साइज़.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
पैरों में करें पिचड़-पिचड़.

काश! यह कीचड़ मर जाएँ,
गड्ढे भी पूरी तरह भर जाएँ,
सड़क का रुका ट्रैफिक चल जाएँ,
जिन्दगी सबकी सुधर जाएँ.
 
कीचड़, कीचड़, कीचड़,
करते थे पैरों को पिचड़-पिचड़.
अब न आना तुम कीचड़,
कीचड़, कीचड़, कीचड़.

- प्रीति बिष्ट सिंह (23 सितम्बर,2010)

Saturday, September 18, 2010

टैम्पू ट्रैवलर और बारह सवारी

यह कविता, ख़ास मेरे दोस्तों के लिए. कोर्बेट का यह सफ़र बहुत सी यादें लेकर आया था... शायद हमने अपने जिन्दगी में इतनी मस्ती कभी भी नहीं की थी.. मेरे फिस्सडी गैंग के दोस्तों, मैं इस सफ़र को कभी नही भूल पाऊँगी..................

सुनहरे सफ़र की, हमने की थी तैयारी,
बड़ी मुश्किलों से मगर बची जान प्यारी,
बने हम यूँ देखो खतरों की खिलाड़ी,
एक टैम्पू ट्रैवलर और उसमें बारह सवारी.

फिस्सडी गैंग हुआ, फिर देखो पागल,
बहार घुमने की ललक मन में जागल,
लिखे मेल पे, मेल पे, मेल हर दिन,
फिर फाइनल हुआ अंत में जाकर इक दिन.

छुट्टी की लोचे का साया फिर आया,
नाकामयाबी का अहसास और गहराया,
पर झूठ को, कौन है जो पकड़ पाया,
हर किसी ने फिर झूठ पे दांव लगाया.

मिल गयी छुट्टी, सबको यकीन न हुआ,
लेकिन जो भी हुआ अच्छा ही हुआ,
चलो कुछ दिन ही सही, मिल गयी हमें मुक्ति,
रोज की किचकिच और झिकझिक से छुट्टी.

चौखटों पे थी सौ वोल्ट की स्माइल,
किये एक दूसरे को फोन पे फोन डायल,
मिले लोदी कोलोनी में, कब के हम बिछड़े,
अलका और राजू का दिल अभी भी हिचके.

नामुमकिन सा हो गया आना उनका,
बाकियों का दिन रोया इसपर तुनका,
टैम्पू ट्रैवलर में बैठे, कुछ सोच लिए जाकर,
पता था कुछ न कुछ, नया सुनाएंगे आकर.

नारियल नहीं सीटियों ने किया आरम्भ,
कोर्बेट सफ़र का हो गया शुभारम्भ,
बुरी नज़र से बचाए हमको भगवान,
यह क्या! लो फिर शुरू हो गया बेसुरा गान.

मुन्नी न जाने कितनी बदनाम हुई,
पी-लू, की रट से शाम से रात हुई,
ग्रास की कशों का दौर चल गया,
हम खुश थे क्यूंकि मस्ती का चक्कर चल गया.

सुबह की मीठी मीठी धूप है आई,
3 सितम्बर का, वो दिन साथ है लायी,
पानी का झरना हमें अपनी और खिंच ले गया,
मौत को मस्ती समझने की गलती कर गया.

झरने के बीच में जाकर बस गई रुक,
होने लगी दिल में बड़ी ही धुक-धुक,
हमारे लड़कों  ने फिर कमान है थामी,
बस को बहार निकलने की मन में ठानी.

पर कहानी में एक ट्विस्ट है आया,
झरना अचानक से नदी सा नज़र आया,
ड्राईवर ने गाड़ी से उतरने का मन बनाया,
मझधार में हम लड़कियों को छोड़ वो आया.

मानसी और मेरी हालत हो गयी ख़राब,
पानी का बहाव देखने वाला था जनाब,
रितु तो नदी पार ही कर जाएगी,
पर हमारी जिन्दगी क्या पार लग पायेगी.

कांपते पैरों ने फिर पानी को छुआ,
डरते हुए क़दमों में कुछ तो हुआ,
स्लिप होते कदम और लड़खडाएं,
गावं वाले भैया फिर भगवान बन कर आयें.

हम लड़कियां तो अब सेफ हो गयी,
लगा आज मौत से भेट हो गयी,
जोर से फिर एक आवाज है आई,
सन्नी नहीं मिल रहा है भाई.

भीड़ में आँखे कुछ तलाशने लगी,
लड़कों को पानी में देख सांस हांफने लगी,
चलो अब तो लडकें भी पानी से बहार आयें,
लो, विडिओ बनता सन्नी भी नज़र आयें.

बाहर आ गयी बारह सवारी,
पर पानी में डोलती रही टैम्पू ट्रैवलर बेचारी,
हर सैंकंड लगता आज यह डूबेगी,
पानी के सतह तक को यह छू लेगी.

जद्दोजहद के बाद वह भी उबर आई,
पानी में नहा कर टैम्पू की जान बच पाई,
लंबी सांस लेकर ईश्वर को किया याद,
पानी में भीगने की बुझ गयी सबकी प्यास.

बहुत फ़िल्मी लग रहा था सबकुछ,
तभी कैमरा और माइक लिए रुक-रुक,
एक सज्जन हमारे समीप है आयें,
बोले, टीवी के लिए बाईट देते जाएँ.

राजीव, गौरव, राहुल, इनु और सन्नी,
बातें कर रहें थे इतनी फन्नी फन्नी,
ऐसा लगता था घूम कर मेला है आयें,
कौन कह सकता है जान बचा कर है आयें.

लो, बस इनकी ही थी कमी,
अमर उजाला वाले भी थे वही,
कब फोटो वो, हमारी खिंच ले गए,
कल के पेपर का हमें हीरो बना गए.

घंटों के इंतज़ार कर पहुँच गए हम,
नाश्ते पे कूदे भूखे नंगे से हम,
बोलीबाल और स्विमिंग फिर से छाया,
अब पानी फिर से दिल को है भाया.

इस बार विकास बना है शिकार,
कोई उसके टैन्ट, से न जाने को तैयार,
गप्पबाजी इक बार जो, स्टार्ट हो गयी,
समझ लो हार्दिक की, वो रात हो गयी.

अगली सुबह फिर वहीं बोलीबाल,
जंगल सफारी और डर से वौर,
शेर जी भी हुए हम पे मेहरबान,
आज बने वो हमारे मेहमान.

फिर रात को तेज बारिश है आई,
वैट 69 और वोडका है छाई,
लटको-झटको का लेकर साथ,
मोहिनी आई है हमारे पास.

सर फूटने के डर से डरता राहुल,
बजाये बैंड हर गाने पर आउल,
जूते गिले थे इसलिए हिल न सका,
सन्नी के जाल में फिर वो फंसा.

मस्ती के साथ हो गयी आधी रात,
अरे! अभी विकास के टैन्ट में भी तो करनी है बात,
हार्दिक की बक बक पर नाचे सबके हार्ट,
लो फिर मिल गयी गप्पों को नयी स्टार्ट.

फिर आई देखो जोरों की निनी,
क्यों न ले ले इक छोटी नैप मिनी,
मुई सुबह आज जल्दी ही हो गयी,
फिल्म हैप्पी एंड पर है पहुँच गयी.

बैग पैक कर, चल दिए सब,
फिर से नोर्मल जिन्दगी जीनी है अब,
ताश के पत्ते भी वापसी में निकले,
कोई न कोई तो यहाँ आज बिक ले.

तड़का लगाया हमने तडके पर,
आग बुझाई है हमने पेट की अब,
दिल्ली और करीब सा आ गया,
सीरियसनेस का भूत फिर से छा गया.

जल्दी बनाना है नैक्स्ट प्लान,
किया सबने मिलकर ये ऐलान,
अब तो फिर मेल पे, मेल डलेंगें,
दिसंबर तक तो यह खेल खेलेंगे.

पता नही कब हम दुबारा जायेंगे,
पर जब भी जायेंगे मज़ा कर आयेंगे,
फिस्सडी गैंग, हम है खतरों के खिलाड़ी,
और इस बार है दोस्तों, गोवा की बारी.

- प्रीति बिष्ट सिंह (18 सितम्बर, 2010)

Wednesday, September 1, 2010

बस से मैट्रो तक

हंसी आती है मुझे उन दिनों को याद कर,
चंद रोज़ पहले की उस बचकानी बात पर,
कैसे दिल मेरा डर से देहल जाता था,
जब मेरे घर जाने का समय करीब आता था.

खो जाती थी मैं कल्पना के आकाश में,
कभी सुपरमैन तो कभी स्पाइडर मैन के भेस में,
एक ईमारत से दूसरी पर छलांग लगाती,
चंद सैकंड में हवा में घूम घर पहुँच जाती.

पर दो सैकंड की कल्पना मेरी ढेर हो जाती,
जब मैं अपने आपको रेडलाइट-चौराहे पर पाती,
कभी आगे तो कभी पीछे भागती नजर आती,
इक सैकंड में हवा से जमीन पर अपने को पाती.

नज़रें बस, बसों के नेम प्लेट तलाशती,
हर बस मुझे अपने रूट की नज़र आती,
कई बार इसी वहम में गलत बस में चढ़ जाती,
कुछ डांट-फटकार सुन अगले स्टैंड पर उतर जाती.

अपनी आँखों को कोस फिर वापस आ जाती,
एक बार फिर अपने को वहीं चौराहे पर फंसा पाती,
खाली बस देखते ही दिल खुश हो जाता,
पर दूसरे ही मिनट बस ख़राब का अहसास डरा जाता.

हर रोज़ कुछ नया नवेला सा घटता था,
अजब सी कहानियां लिए अनुभव बढ़ता था,
फिर इक दिन इस पर विराम लग गया,
फुर्ती से दौडती मैट्रो का सफ़र आराम बन गया.

अब न तो बस की वो गन्दी घिचपिच है,
न वो पसीने की बदबू, न वो  चिकचिक है,
ट्रैफिक जाम से अब हमें क्या लेना-देना,
बस चंद सैकंड का आरामभरा सफ़र और घर पहुचना.

मैट्रो हम जैसी जिंदगियों में अवतार बनकर है आई,
ट्रैफिक जाम से बचा इसी ने है नैया पार लगाई,
पर आज न जाने क्यों मुझे सफदरजंग बस की याद आई,
कुछ भी हो मगर बस ने हमेशा मेरी मदद की थी भाई.

- प्रीति बिष्ट सिंह ( 01 सितम्बर, 2010)