Wednesday, September 1, 2010

बस से मैट्रो तक

हंसी आती है मुझे उन दिनों को याद कर,
चंद रोज़ पहले की उस बचकानी बात पर,
कैसे दिल मेरा डर से देहल जाता था,
जब मेरे घर जाने का समय करीब आता था.

खो जाती थी मैं कल्पना के आकाश में,
कभी सुपरमैन तो कभी स्पाइडर मैन के भेस में,
एक ईमारत से दूसरी पर छलांग लगाती,
चंद सैकंड में हवा में घूम घर पहुँच जाती.

पर दो सैकंड की कल्पना मेरी ढेर हो जाती,
जब मैं अपने आपको रेडलाइट-चौराहे पर पाती,
कभी आगे तो कभी पीछे भागती नजर आती,
इक सैकंड में हवा से जमीन पर अपने को पाती.

नज़रें बस, बसों के नेम प्लेट तलाशती,
हर बस मुझे अपने रूट की नज़र आती,
कई बार इसी वहम में गलत बस में चढ़ जाती,
कुछ डांट-फटकार सुन अगले स्टैंड पर उतर जाती.

अपनी आँखों को कोस फिर वापस आ जाती,
एक बार फिर अपने को वहीं चौराहे पर फंसा पाती,
खाली बस देखते ही दिल खुश हो जाता,
पर दूसरे ही मिनट बस ख़राब का अहसास डरा जाता.

हर रोज़ कुछ नया नवेला सा घटता था,
अजब सी कहानियां लिए अनुभव बढ़ता था,
फिर इक दिन इस पर विराम लग गया,
फुर्ती से दौडती मैट्रो का सफ़र आराम बन गया.

अब न तो बस की वो गन्दी घिचपिच है,
न वो पसीने की बदबू, न वो  चिकचिक है,
ट्रैफिक जाम से अब हमें क्या लेना-देना,
बस चंद सैकंड का आरामभरा सफ़र और घर पहुचना.

मैट्रो हम जैसी जिंदगियों में अवतार बनकर है आई,
ट्रैफिक जाम से बचा इसी ने है नैया पार लगाई,
पर आज न जाने क्यों मुझे सफदरजंग बस की याद आई,
कुछ भी हो मगर बस ने हमेशा मेरी मदद की थी भाई.

- प्रीति बिष्ट सिंह ( 01 सितम्बर, 2010)

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