मेरे मित्रों को लगता है कि मुझे अपनी कविताओं में थोड़ी गंभीरता लानी चाहिए. अपनी इसी विवशता को अपनी इस कविता में मैं लिख रही हूँ.
सब चाहे कुछ ऐसा लिखूं, जिसमें शब्दों का भार रहें,
शब्दों में अर्थों की बाढ़ लिए, भावों की सुन्दर झंकार रहें.
पर लिख न पाऊ कुछ भी मैं, कैसे शब्दों का हार बुनूं,
शब्द तो मुझे तुम दे दोगे, पर भावों की कैसे बौछार करूँ.
जो शब्द न मेरे है दिल के, उनको कैसे महसूस करूँ,
कैसे अपनी कलम से मैं, इन रंगीन चित्रों में जीवन दूँ.
जैसे बिन मिटटी को छुएं, कुम्हार घड़े को आकर न दें,
जैसे बिन बाती के, दीपक की ज्योति न जलें.
फिर कैसे मैं लिख दूँ, जो चाहते हो तुम मुझसे लिखवाना,
जिस दर्द, भाव का अहसास नहीं, आसान नहीं है उस पर लिख पाना.
प्रीति बिष्ट सिंह
(09 अक्तूबर 2010)
Friday, October 8, 2010
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बहुत सही लिखा है आपने| धन्यवाद|
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