Wednesday, June 15, 2011

अनुभूति

कितना अज़ब सा है, यह अहसास,
जब आपके भीतर कोई, ले रहा हो सांस.

जब पहली बार देखा, तो यकीन न हुआ,
अंकुरित बीज सा, पेट में बोया हुआ.

सोचकर हैरान थी, मेरी यह दो आँखे,
क्या यहीं है, हमारे वंश की नयी सांसे.

जीवन में सबकुछ बदलने, सा है लगा,
अजीब और गजब सा, शरीर में घटने लगा.

पल-पल में इच्छाएं, बदलती थी अपने रंग,
तो हर क्षण में, बदलते भाव भी न थे कम.

जिन्दगी के मायने, लगे थे अब बदलने,
अपनी प्राथमिकतायें, अब लगी थी थमने.

कभी सोचा न था, मैं ऐसी हो जाऊँगी,
हड़बड़ी भरे कदमों में, सतर्कता का नियम लगाऊंगी.

पर सब कुछ चंद दिनों, में ही बदल गया,
जब धडकनों की आवाज़ ने, मुझे रोमांचित कर दिया.

याद है मुझे आज भी, वो रोमांचक दिन,
तेज़ी से दौडती वो, धडकनों की धिनक-धिन.

ऐसा लगा जैसे, वो समय के साथ रही थी भाग,
मानो उसे भी जल्दी, बाहर आने की थी आस.

समय के साथ, बढ़ रहा था शरीर मेरा,
बदलावों के दौर का, भीतर भी लगा था डेरा.

पर आज मैं चकित थी, उस अहसास से,
उदर के भीतर, अंगडाइयों के दौर से.

लगा वो मुझे छूकर, बात यह कह रही हो,
मां क्या तुम भी मुझे, महसूस कर रही हो.

उसकी हर एक करवट, भर देती है खुशियाँ,
मानो ज़िन्दगी की पूरी, होने वाली हो हर कमियां.

इंतज़ार है मुझे, अब बस उस पल का,
नन्हीं सी जान को, अपने हाथो से छूने भर का.

- प्रीति बिष्ट सिंह

Friday, June 10, 2011

"खो गए धूप के साज़"


देखो बाहर, कितना सुकून है आज, 
गुम है, चिलचिलाती धूप के साज़.

बाहर लगता है, बादलो का काला मेला, 
पानी के बूंदों की, सारंगी का डेरा. 

झनक- झनक बूंदें, आज तो बरसेगी, 
धूप को देखने, हमारी नज़रें तरसेगी. 

फिर गली में सब, दौड़ते नज़र आयेंगे,
नंगे पाँव पानी को, चल्काते वो जायेंगे. 

मोर नाचेंगे आज, कई दिनों के बाद, 
जमी धुल पत्तियों से, हटेगी फिर आज. 

धुल जायेगा यह, ज़मीं का सुंदर फर्श, 
धूप भी रोएगी, देखकर अपना यह हश्र. 

इक पल में सबकुछ, निखर सा जायेगा, 
जब खनककर पानी, टीन की छत से टकराएगा. 

जी करता है समेट लूँ, इस नज़ारे को, 
समय को रोक लूँ, धूप को हराने को. 

पर जानती हूँ मैं, यह संभव को न सकेगा, 
आज नहीं तो कल, बादल यह हटेगा. 

चीर कर बादल, सूरज फिर छा जायेगा, 
धरती के पानी को इकपल में, सोख यह जायेगा. 

पर जानते है सब, बादल फिर आसमां पर छाएंगे, 
बारिश की बुँदे, फिर इस जहाँ को धो जायेंगे. 

मुझे विश्वास है, वो दिन जल्द ही आयेगा, 
खोएंगे धूप के साज़ और आँखों पे फिर सुकून छाएगा. 

प्रीति बिष्ट सिंह 

Sunday, May 15, 2011

मेरी व्यथा


जब शाम को मैंने उनका मुंह देखा,
लगा, अभी तक नाराज़ है मुझसे,
कल रात की तू-तू-मैं-मैं की, 
धधक कर जलती आग है ये.

वो आयें और अपने काम में व्यस्त हुए, 
हम भी मुंह लटकाएं, अपनी दिनचर्या से पस्त हुए, 
रात को भी, थी इस चुप्पी और ख़ामोशी, 
पर मेरे मन में थे, भावों की पोशाम्पाशी.

ऐसा लगा जैसे, हम है दो अलग राहें,
जो एक-दूसरे को, फूटी आँख भी न भएँ, 
इस तरह वो मुझे से नज़र चुरा रहे थे, 
मानो एकता के सीरियल की भूमिका अदा कर रहे थे.

मैंने भी ठान ली थी, मन में यह बात, 
इस बार मैं न मानूंगी उनसे हार,
तभी अचानक से सिकुड़े होंठो में हुई हरकत, 
दो इंच की मुस्कान ने बदली उनकी रंगत.

लगा शायद उन्हें गलती का, हुआ है अहसास, 
तभी तो खुद ही मुस्काकर, कर रहे है  तांकझांक, 
मैंने भी अपने हठ का, किया तब त्याग, 
प्यार से दो बोल बोले और पकड़ा उनका हाथ. 

उसके बाद न पूछो, हुई क्या बात, 
हाथ पकड़ते ही, समझ आया यह राज़, 
पिघल गयी थी, जो देख कर उनकी मुस्कान, 
अब मन कर रहा है, जोर से पकडू उनके कान. 

जिस मुस्कान पर, मैं गयी थी फिसल, 
सच्चाई ने जिसे, दिया इक पल में मसल, 
समझ तब मुझे आया, मेरी सूरत देख नहीं, 
ब्लैक बेरी मैसेंजर का मैसेज देख, उनका मन था मुस्काया.

प्रीति बिष्ट सिंह  

Saturday, May 7, 2011

चिट्ठी आई है...

"चिट्ठी आई है... " कविता में मैं किसी प्रेम पत्र या किसी दूर देश से आये संदेशे की नहीं बल्कि इन्क्रीमेंट की चिट्टी की बात कर रही हूँ. आइये इस अप्रेज़ल के दौर में मेरे मन में चल रहे भावों को पढ़े.


किसी आम चिट्टी की नहीं,
मुझे तो केवल अब, उसका इंतज़ार है,
आँखों में हजारों सपनो को लिए,
उसे पाने को,  सबका दिल बेक़रार है.

हर रोज़ निहारते है, उस कैबिन को,
जब भी गुज़रते है उस कुचे से,
मन करता, रुक कर पूछ ही लेते,
कब लाएगी चिट्टी, मीठे संदेशों को लेके.

बदलते प्रिंटरों को देख, मन यहीं सोचे,
लगता है दूर नहीं, मंजिल को आने में,
जीवन का सार मुझे, लगा है दिखने,
कागजों के ढेर और ठप्पों की गूंज में.

हर बार कदम मेरे, ठिटक से जाते,
जब किसी के हाथ में, सफ़ेद लिफाफा पाते,
दिल बैचेन हो जाता, आँखे भर आती,
मन यहीं सोचें, क्यूँ मेरी बारी नहीं है आती.

फिर इक दिन, वो घडी आ ही गयी,
सपनों की छड़ी लिए वो छा ही गयी,
लिफाफे पे लिखे नाम को देख, दिल भर आया,
लगता है जैसे, जीवन का सुनहरा मोड़ आया.

पर हर बार की तरह, मायूसी है छाई,
आंकड़ों के जाल में इमानदारी  है ठगी गयी भाई,
लगा था, इस बार कुछ अलग हो जायेगा,
कितने काबिल है हम, शायद पता लग जायेगा. 

यह हो न सका क्यूंकि हम यह गए थे भूल,
कि लोग बदले है, बदली है दुनिया, 
बदले है कैबिन, बदल गयी नज़ारे परखी, 
पर बदल न सका था, वो सिस्टम भेदभावी. 

प्रीति बिष्ट सिंह (2 मई,2011)

Friday, March 25, 2011

मेरी व्यथा

जब शाम को मैंने उनका मुंह देखा,
लगा, अभी तक नाराज़ है मुझसे,
कल रात की तू-तू-मैं-मैं की,
धधक कर जलती आग है यह.

वो आयें और अपने काम में व्यस्त हुए,
हम भी मुंह लटकाएं, अपनी दिनचर्या से पस्त हुए,
रात को भी थी, इक चुप्पी और ख़ामोशी,
पर मेरे मन में थे, भावों की पोशाम्पशी.

ऐसा लगा जैसे, हम हैं दो अलग राहे,
जो एक-दूसरे को, फूटी आँख भी न भएँ,
इस तरह वो मुझसे नज़र चुरा रहे थे,
मानो एकता के सीरियल की भूमिका अदा कर रहे थे.

मैंने भी ठान ली थी, मन में यह बात,
इस बार, मैं न मानूंगी उनसे हार,
तभी अचानक से सिकुड़े होठों में हुई हरकत,
दो इंच की मुस्कान ने बदली उनकी रंगत.

लगा शायद उन्हें गलती का, हुआ है अहसास,
तभी तो खुद ही मुस्कुराकर, कर रहे है तांकझांक,
मैंने भी अपने हठ का, किया तब त्याग,
प्यार से दो बोल बोले और पकड़ा उनका हाथ.

उसके बाद न पूछो, हुई क्या बात,
हाथ पकड़ते ही, समझ आया यह राज़,
पिघल गयी थी, जो देख के उनकी मुस्कान,
अब मन कर रहा है, जोर से पकडू उनके कान.

जिस मुस्कान पर, मैं गयी थी फिसल,
सच्चाई ने जिसे, दिया इक पल में  मसल,
समझ तब मुझे आया, मेरी सूरत देख नही,
ब्लैक बेरी मैसेंजर का मेसज देख, उनका मन था मुस्काया.

- प्रीति बिष्ट सिंह (24  मार्च, 2011)

Monday, February 14, 2011

कभी गर्म सलाखें,
तो कभी नम ज़मीं,
बहुत कुछ देती हैं,
हमें ये ज़िन्दगी.