Friday, March 25, 2011

मेरी व्यथा

जब शाम को मैंने उनका मुंह देखा,
लगा, अभी तक नाराज़ है मुझसे,
कल रात की तू-तू-मैं-मैं की,
धधक कर जलती आग है यह.

वो आयें और अपने काम में व्यस्त हुए,
हम भी मुंह लटकाएं, अपनी दिनचर्या से पस्त हुए,
रात को भी थी, इक चुप्पी और ख़ामोशी,
पर मेरे मन में थे, भावों की पोशाम्पशी.

ऐसा लगा जैसे, हम हैं दो अलग राहे,
जो एक-दूसरे को, फूटी आँख भी न भएँ,
इस तरह वो मुझसे नज़र चुरा रहे थे,
मानो एकता के सीरियल की भूमिका अदा कर रहे थे.

मैंने भी ठान ली थी, मन में यह बात,
इस बार, मैं न मानूंगी उनसे हार,
तभी अचानक से सिकुड़े होठों में हुई हरकत,
दो इंच की मुस्कान ने बदली उनकी रंगत.

लगा शायद उन्हें गलती का, हुआ है अहसास,
तभी तो खुद ही मुस्कुराकर, कर रहे है तांकझांक,
मैंने भी अपने हठ का, किया तब त्याग,
प्यार से दो बोल बोले और पकड़ा उनका हाथ.

उसके बाद न पूछो, हुई क्या बात,
हाथ पकड़ते ही, समझ आया यह राज़,
पिघल गयी थी, जो देख के उनकी मुस्कान,
अब मन कर रहा है, जोर से पकडू उनके कान.

जिस मुस्कान पर, मैं गयी थी फिसल,
सच्चाई ने जिसे, दिया इक पल में  मसल,
समझ तब मुझे आया, मेरी सूरत देख नही,
ब्लैक बेरी मैसेंजर का मेसज देख, उनका मन था मुस्काया.

- प्रीति बिष्ट सिंह (24  मार्च, 2011)

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