Sunday, May 15, 2011

मेरी व्यथा


जब शाम को मैंने उनका मुंह देखा,
लगा, अभी तक नाराज़ है मुझसे,
कल रात की तू-तू-मैं-मैं की, 
धधक कर जलती आग है ये.

वो आयें और अपने काम में व्यस्त हुए, 
हम भी मुंह लटकाएं, अपनी दिनचर्या से पस्त हुए, 
रात को भी, थी इस चुप्पी और ख़ामोशी, 
पर मेरे मन में थे, भावों की पोशाम्पाशी.

ऐसा लगा जैसे, हम है दो अलग राहें,
जो एक-दूसरे को, फूटी आँख भी न भएँ, 
इस तरह वो मुझे से नज़र चुरा रहे थे, 
मानो एकता के सीरियल की भूमिका अदा कर रहे थे.

मैंने भी ठान ली थी, मन में यह बात, 
इस बार मैं न मानूंगी उनसे हार,
तभी अचानक से सिकुड़े होंठो में हुई हरकत, 
दो इंच की मुस्कान ने बदली उनकी रंगत.

लगा शायद उन्हें गलती का, हुआ है अहसास, 
तभी तो खुद ही मुस्काकर, कर रहे है  तांकझांक, 
मैंने भी अपने हठ का, किया तब त्याग, 
प्यार से दो बोल बोले और पकड़ा उनका हाथ. 

उसके बाद न पूछो, हुई क्या बात, 
हाथ पकड़ते ही, समझ आया यह राज़, 
पिघल गयी थी, जो देख कर उनकी मुस्कान, 
अब मन कर रहा है, जोर से पकडू उनके कान. 

जिस मुस्कान पर, मैं गयी थी फिसल, 
सच्चाई ने जिसे, दिया इक पल में मसल, 
समझ तब मुझे आया, मेरी सूरत देख नहीं, 
ब्लैक बेरी मैसेंजर का मैसेज देख, उनका मन था मुस्काया.

प्रीति बिष्ट सिंह  

Saturday, May 7, 2011

चिट्ठी आई है...

"चिट्ठी आई है... " कविता में मैं किसी प्रेम पत्र या किसी दूर देश से आये संदेशे की नहीं बल्कि इन्क्रीमेंट की चिट्टी की बात कर रही हूँ. आइये इस अप्रेज़ल के दौर में मेरे मन में चल रहे भावों को पढ़े.


किसी आम चिट्टी की नहीं,
मुझे तो केवल अब, उसका इंतज़ार है,
आँखों में हजारों सपनो को लिए,
उसे पाने को,  सबका दिल बेक़रार है.

हर रोज़ निहारते है, उस कैबिन को,
जब भी गुज़रते है उस कुचे से,
मन करता, रुक कर पूछ ही लेते,
कब लाएगी चिट्टी, मीठे संदेशों को लेके.

बदलते प्रिंटरों को देख, मन यहीं सोचे,
लगता है दूर नहीं, मंजिल को आने में,
जीवन का सार मुझे, लगा है दिखने,
कागजों के ढेर और ठप्पों की गूंज में.

हर बार कदम मेरे, ठिटक से जाते,
जब किसी के हाथ में, सफ़ेद लिफाफा पाते,
दिल बैचेन हो जाता, आँखे भर आती,
मन यहीं सोचें, क्यूँ मेरी बारी नहीं है आती.

फिर इक दिन, वो घडी आ ही गयी,
सपनों की छड़ी लिए वो छा ही गयी,
लिफाफे पे लिखे नाम को देख, दिल भर आया,
लगता है जैसे, जीवन का सुनहरा मोड़ आया.

पर हर बार की तरह, मायूसी है छाई,
आंकड़ों के जाल में इमानदारी  है ठगी गयी भाई,
लगा था, इस बार कुछ अलग हो जायेगा,
कितने काबिल है हम, शायद पता लग जायेगा. 

यह हो न सका क्यूंकि हम यह गए थे भूल,
कि लोग बदले है, बदली है दुनिया, 
बदले है कैबिन, बदल गयी नज़ारे परखी, 
पर बदल न सका था, वो सिस्टम भेदभावी. 

प्रीति बिष्ट सिंह (2 मई,2011)