Wednesday, December 17, 2014

कैसा लगता होगा

कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे को सुबह जगाया होगा,
उसके बहानो का सिरहाने खिंच,
उसकी आलस की रजाई को हटाया होगा।

उसकी हर बात को काट कर,
उसके हर तर्क को तोड़ कर,
स्कूल जाने के लिए उसे बिस्तर से,
जबर्दस्ती बाहर खींच कर निकाला होगा।

कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

बेटे के लटके हुए मुंह को देखकर,
मन उसका भी उदास हुआ होगा,
तभी तो स्कूल जाते हुए अपने बच्चे के
बालों को उसने सहलाया था।

अजीब लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

घर से निकलते हुए बेटे को देख,
उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना न था,
आखिर बेटे ने माँ की बात मानी,
इससे बड़ा भला क्या कोई इनाम था?

गर्व होता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

बेटे ने जब अलविदा कह कर,
उसकी ओर अपना हाथ हिलाया होगा,
तब माँ ने भी उसे घर आकर,
"क्या खाओगे" का लाड़ दिखाया होगा।

अच्छा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

आखों से ओझिल होने तक,
रूककर भी उसने उसे देखा न होगा,
आखिर देखती भी क्यों?
उसका बेटा तो सिर्फ स्कूल जा रहा था सरहद नही।

अच्छा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

बिखरे घर को समेटती माँ को,
पता नही था की उसका घर बिखर गया,
तभी तो वो अब भी यही सोच रही,
उसका बेटा घर आकर क्या खायेगा ?

कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

जब उसे पता चला होगा,
अपने को कोसते हुए, अपनी छाती को पीटा होगा ,
माथा पकड़ यही सोचा होगा,
क्यों उसने अपने बेटे की बात नही मानी ?

अब कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।

स्कूल की वर्दी में मुस्कुराते हुए,
हाथ हिलाते हुए उसका बेटा ,
जब कफ़न में आया होगा,
बिलखते कांपते हाथों में उसने उसे सीने से लगाया होगा।

कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।
कैसा लगता होगा उस माँ को,
जिसने अपने बेटे हो सुबह जगाया होगा।


Friday, September 26, 2014

बेलगाम "हां"

जब भी इसकी किसी पर पड़ती है मार,
सच्चाई, तुलना और ज्ञान हो जाते है तार-तार,
इसके आगे सब जाते है हार,
खाली इसका जाता नहीं है कोई भी वार।

अपनी होकर भी यह नहीं बनती है ढाल,
इसकी जान सका न कोई चाल ,
बन कर फिर मेरा यह काल,
देखो, फिर कर गयी है मुझे बेहाल।

बेहयाई से दिखाते हुए यह दांत ,
खिंच कर ले जाती है मेरी साँस,
दुहाई में निकले मेरे शब्द "हाय-हाय",
इक पल में इसे यह "हां" में बदल जाएँ। 

कहते है दिलो-दिमाग की सुनो बात,
मिलकर करो कुछ ऐसा हिसाब,
ताकि समस्याएं हो जाएँ आसान,
परिस्थिति भी हो जाएँ हम पर मेहरबान।

पर दिमाग की यह सुनती नहीं है कोई बात,
चाहे बिगड़ जाएँ फिर कितने ही हालत,
सूख जाएँ कंठ या पेट की आंत,
करेगी वहीँ जिसमे साथी दे इसका साथ।

मुंह से निकले शब्द और साथी गर्दन का झुकाव,
अपनी प्राथमिकताओं को लगा कर दांव,
दूसरों की मदद करने का निस्वार्थ भाव,
जल्द ही बदल देता है चेहरे के हाव-भाव। 

ऐसा ही होता है जब बिन सोंचे कहते है हां,
"न" शब्द मन के कोने में पड़े रह जाते है बेजान,
हो जाती है सब प्लानिंग तब बेकार,
एक बार जो मुख से फिसले जुबान।

इसलिए गांठ बाढ़ लो मेरी एक बात,
चाहे रुआंसे चेहरे लिए सामने खड़े हो जाएँ हालत ,
तुम अड़िग और दृढ़ता का ले साथ ,
चलाओगे जुबान जब तुम्हारे काम से हो खाली हाथ।

 

Wednesday, July 16, 2014

अभिराज और हम

तीन साल कब गए हैं बीत ,
कुछ पता ही न चला,
समय बढ़ने की ये रीत ,
रोके से रुका है क्या भला ?
 
तुमसे गई हूँ मैं इतनी जुड़,
कि देखती हूँ जब पीछे मुड़ ,
हो जाती हूँ मैं हैरान ,
कैसे बदल गया भावनाओं का सामान। 
 
कुछ समझाने से डरते कदम,
आज, मेरे तुम्हें है समझाते ,
डांट कर डराती मेरी आँखें ,
तेरी मुस्कान पर है मर जाते।
 
तेरे आधे अधूरे शब्द भी ,
मेरे आगे एक कहानी है कह जाते ,
तेरी बदमाशियों के आगे,
मेरे क्रोध के कदम क्यों है डगमगाते। 
 
"तेरे-मेरे" शब्द पर चिढ़ते भाव ,
"मेरी मम्मा " सुन आज गदगदाते,
बिखरी चीजों को देख,
आज मेरे शब्द क्यों नहीं चिल्लाते!
 
तेरी हर इच्छा हो पूरी,
चाहे रह जाएँ नींद मेरी अधूरी ,
थके हुए क़दमों को थामे ,
ऐसी क्यों है इच्छा जागे !
 
दुआं है मेरी उससे ,
हर साल जन्मदिन पर जुड़ें किस्से ,
खुशियों का यह दौर चलता जाएँ ,
समय चाहें कितना ही आगे निकल जाएँ।  
 
किसी से तुम घबराना नहीं,
गिरने के डर से कपकपाना नहीं ,
मुड़कर देखों तो एक बार पीछे ,
एक की जगह दो सायें खडें है तेरे क़दमों के नीचे। 
 
- प्रीति बिष्ट सिंह