अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के अवसर पर "व्यथा" कविता से शायद बहुत से लोग अपनी व्यथा को जोड़ पाएं।
जिन लोगों को देख कर,
चुप हो जाती थी बोलियां,
जिन लोगों से झेप कर,
कट जाती थी डोरियां,
आज उन लोगों को देख कर,
गुस्सा आता है मुझे बार-बार,
जिनके कारण अपनी बोली, अपनी जमीं छोड़ी,
उनकी गुशुदगी करती है परेशान बार-बार।
हम भी हो "उन लोगों " में शामिल,
बस, यहीं सपना दिखता था हरबार,
गंवार, लोकल के टैग से बचने की खातिर,
भ्रम पैदा किए हमने एक नहीं बल्कि हज़ार,
कभी हमने अपनी जमीन बदली,
तो कभी हमने अपने बोल,
कभी नकली आवरण से,
हमने ढका अपने को चारो ओर।
पर आज अफ़सोस होता है ये सोचकर,
मैं कहीं का भी नहीं रहा,
न मुझमे "उन लोगों " का नयापन आया,
न मैंने अपनों से अपनापन पाया,
खो दिया मैंने उन संस्कारों को भी,
जो बीज से फूटी कोपल संग मुझे मिला था,
नकलीपन के इस आँगन में धूप तो है,
पर न मेरी जमीन है न मेरी बोली की गर्मी।
- प्रीति बिष्ट सिंह
जिन लोगों को देख कर,
चुप हो जाती थी बोलियां,
जिन लोगों से झेप कर,
कट जाती थी डोरियां,
आज उन लोगों को देख कर,
गुस्सा आता है मुझे बार-बार,
जिनके कारण अपनी बोली, अपनी जमीं छोड़ी,
उनकी गुशुदगी करती है परेशान बार-बार।
हम भी हो "उन लोगों " में शामिल,
बस, यहीं सपना दिखता था हरबार,
गंवार, लोकल के टैग से बचने की खातिर,
भ्रम पैदा किए हमने एक नहीं बल्कि हज़ार,
कभी हमने अपनी जमीन बदली,
तो कभी हमने अपने बोल,
कभी नकली आवरण से,
हमने ढका अपने को चारो ओर।
पर आज अफ़सोस होता है ये सोचकर,
मैं कहीं का भी नहीं रहा,
न मुझमे "उन लोगों " का नयापन आया,
न मैंने अपनों से अपनापन पाया,
खो दिया मैंने उन संस्कारों को भी,
जो बीज से फूटी कोपल संग मुझे मिला था,
नकलीपन के इस आँगन में धूप तो है,
पर न मेरी जमीन है न मेरी बोली की गर्मी।
- प्रीति बिष्ट सिंह
No comments:
Post a Comment