Friday, September 26, 2014

बेलगाम "हां"

जब भी इसकी किसी पर पड़ती है मार,
सच्चाई, तुलना और ज्ञान हो जाते है तार-तार,
इसके आगे सब जाते है हार,
खाली इसका जाता नहीं है कोई भी वार।

अपनी होकर भी यह नहीं बनती है ढाल,
इसकी जान सका न कोई चाल ,
बन कर फिर मेरा यह काल,
देखो, फिर कर गयी है मुझे बेहाल।

बेहयाई से दिखाते हुए यह दांत ,
खिंच कर ले जाती है मेरी साँस,
दुहाई में निकले मेरे शब्द "हाय-हाय",
इक पल में इसे यह "हां" में बदल जाएँ। 

कहते है दिलो-दिमाग की सुनो बात,
मिलकर करो कुछ ऐसा हिसाब,
ताकि समस्याएं हो जाएँ आसान,
परिस्थिति भी हो जाएँ हम पर मेहरबान।

पर दिमाग की यह सुनती नहीं है कोई बात,
चाहे बिगड़ जाएँ फिर कितने ही हालत,
सूख जाएँ कंठ या पेट की आंत,
करेगी वहीँ जिसमे साथी दे इसका साथ।

मुंह से निकले शब्द और साथी गर्दन का झुकाव,
अपनी प्राथमिकताओं को लगा कर दांव,
दूसरों की मदद करने का निस्वार्थ भाव,
जल्द ही बदल देता है चेहरे के हाव-भाव। 

ऐसा ही होता है जब बिन सोंचे कहते है हां,
"न" शब्द मन के कोने में पड़े रह जाते है बेजान,
हो जाती है सब प्लानिंग तब बेकार,
एक बार जो मुख से फिसले जुबान।

इसलिए गांठ बाढ़ लो मेरी एक बात,
चाहे रुआंसे चेहरे लिए सामने खड़े हो जाएँ हालत ,
तुम अड़िग और दृढ़ता का ले साथ ,
चलाओगे जुबान जब तुम्हारे काम से हो खाली हाथ।