Sunday, February 21, 2010

"खेल अप्रेजल का"

(हर बार नए फैनेंशियल इयर की शुरुआत में अक्सर ऑफिसों में अप्रेजल की बात चलने लगती है. और इसी अप्रेजल की बात के साथ शुरू हो जाता है अप्रेजल का खेल. मेरी अगली कविता कुछ यहीं बयान कर रही है.)

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.


फाइलों का ढेर लगता है अपना,
ऑफिस का माहोल लगता है सपना,
टाइम पर आना, टाइम पर जाना,
आज का काम आज ही निपटाना.

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

नींद नहीं केवल जोश है दिखता,
टाई और पेंट  में हर कोई दिखता,
रूल्स का तोडना इतिहास हो गया,
रूल्स फोलो करना हॉट हो गया,

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

हैरान है सब एक दुसरे को देख,
परेशान है वों क्यूँ है मुझसे ज्यादा नेक,
अरे भाई यह तो अप्रेजल का खेल है,
तभी तो बेमेलों में भी दिखता मेल है.

सभी को आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ सभी का दिल बेकरार हुआ.

लगता है इस साल लक्ष्मी बरसेगी,
छप्पर नहीं तो नल से टपकेगी,
साथ वाले की आँखे कब झपकेगी,
कब मेरी किस्मत उससे ज्यादा चमकेगी,

आज फिर ऑफिस से प्यार हुआ,
जाने फिर क्यूँ दिल बेकरार हुआ.

बस इस बार नैया पार हो जाये,
थोड़ी सी लक्ष्मी और बढियां डेसिगनेशन मिल जाये,
फिर देखना में क्या कमाल करूंगा,
पिछले साल की तरह आराम करूँगा,
अगले साल फिर मैं ऑफिस से प्यार करूँगा,
नए अप्रेजल में ही जाकर दिल बेकरार करूँगा.

- प्रीति बिष्ट सिंह

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