Saturday, May 7, 2011

चिट्ठी आई है...

"चिट्ठी आई है... " कविता में मैं किसी प्रेम पत्र या किसी दूर देश से आये संदेशे की नहीं बल्कि इन्क्रीमेंट की चिट्टी की बात कर रही हूँ. आइये इस अप्रेज़ल के दौर में मेरे मन में चल रहे भावों को पढ़े.


किसी आम चिट्टी की नहीं,
मुझे तो केवल अब, उसका इंतज़ार है,
आँखों में हजारों सपनो को लिए,
उसे पाने को,  सबका दिल बेक़रार है.

हर रोज़ निहारते है, उस कैबिन को,
जब भी गुज़रते है उस कुचे से,
मन करता, रुक कर पूछ ही लेते,
कब लाएगी चिट्टी, मीठे संदेशों को लेके.

बदलते प्रिंटरों को देख, मन यहीं सोचे,
लगता है दूर नहीं, मंजिल को आने में,
जीवन का सार मुझे, लगा है दिखने,
कागजों के ढेर और ठप्पों की गूंज में.

हर बार कदम मेरे, ठिटक से जाते,
जब किसी के हाथ में, सफ़ेद लिफाफा पाते,
दिल बैचेन हो जाता, आँखे भर आती,
मन यहीं सोचें, क्यूँ मेरी बारी नहीं है आती.

फिर इक दिन, वो घडी आ ही गयी,
सपनों की छड़ी लिए वो छा ही गयी,
लिफाफे पे लिखे नाम को देख, दिल भर आया,
लगता है जैसे, जीवन का सुनहरा मोड़ आया.

पर हर बार की तरह, मायूसी है छाई,
आंकड़ों के जाल में इमानदारी  है ठगी गयी भाई,
लगा था, इस बार कुछ अलग हो जायेगा,
कितने काबिल है हम, शायद पता लग जायेगा. 

यह हो न सका क्यूंकि हम यह गए थे भूल,
कि लोग बदले है, बदली है दुनिया, 
बदले है कैबिन, बदल गयी नज़ारे परखी, 
पर बदल न सका था, वो सिस्टम भेदभावी. 

प्रीति बिष्ट सिंह (2 मई,2011)

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