देखो बाहर, कितना सुकून है आज,
गुम है, चिलचिलाती धूप के साज़.
बाहर लगता है, बादलो का काला मेला,
पानी के बूंदों की, सारंगी का डेरा.
झनक- झनक बूंदें, आज तो बरसेगी,
धूप को देखने, हमारी नज़रें तरसेगी.
फिर गली में सब, दौड़ते नज़र आयेंगे,
नंगे पाँव पानी को, चल्काते वो जायेंगे.
मोर नाचेंगे आज, कई दिनों के बाद,
जमी धुल पत्तियों से, हटेगी फिर आज.
धुल जायेगा यह, ज़मीं का सुंदर फर्श,
धूप भी रोएगी, देखकर अपना यह हश्र.
इक पल में सबकुछ, निखर सा जायेगा,
जब खनककर पानी, टीन की छत से टकराएगा.
जी करता है समेट लूँ, इस नज़ारे को,
समय को रोक लूँ, धूप को हराने को.
पर जानती हूँ मैं, यह संभव को न सकेगा,
आज नहीं तो कल, बादल यह हटेगा.
चीर कर बादल, सूरज फिर छा जायेगा,
धरती के पानी को इकपल में, सोख यह जायेगा.
पर जानते है सब, बादल फिर आसमां पर छाएंगे,
बारिश की बुँदे, फिर इस जहाँ को धो जायेंगे.
मुझे विश्वास है, वो दिन जल्द ही आयेगा,
खोएंगे धूप के साज़ और आँखों पे फिर सुकून छाएगा.
प्रीति बिष्ट सिंह
मुझे विश्वास है, वो दिन जल्द ही आयेगा,
ReplyDeleteखोएंगे धूप के साज़ और आँखों पे फिर सुकून छाएगा.
mujhe bhi hai vishwaas