जीवन की मझधार में देखो फंस गए,
अब क्या करे असमंजस में है पड़ गए.
किस राह का चुनाव करें,
किस विचार का समर्थन,
किस डगर के मुसाफिर बने,
चल रहा है दिल में मंथन.
एक गलत निर्णय के बोझ का डर ,
खा रहा है मुझे भीतर ही भीतर,
मेरे चुनाव पर टिकी सबकी एकटक नजर,
डर है कहीं कदम न हो मेरे इधर-उधर.
निर्णय इसके, उसके, सबके पक्ष में हो,
समाज और सभ्यता के विपक्ष न हो,
सोचती हूँ बैठकर एक बार को,
निर्णय मैं सबके लिए क्यों ले रही हूँ इस बार को.
क्यों मेरे निर्णय, मेरे लिए नही,
मैं अपने बारें में क्यों सोच सकती नही,
क्यों हर बार मुझसे उम्मींद लगायी जाती,
क्यों मुझे ही समाज की दुहाई दी जाती.
मैं, मेरा, मेरे लिए क्यों मृत है,
क्यों मेरा जीवन त्रस्त होकर भी तृप्त है,
क्यों मैं अपने बारें में सोचती नहीं,
मेरे भी इच्छाएं पंख होकर क्यों उडती नहीं.
शायद बेड़ियाँ है पाँव में मेरे,
शायद दिल में है पड़े घाव मेरे,
फिर भी निर्णय तो लेना ही होगा,
अपने को भूल समाज को सम्मान देना ही होगा.
मैं कुछ भी नहीं किसी के लिए,
मेरा आत्मसम्मान है बलिदान के लिए,
काश इक बार फिर मिलता निर्णय का मौका,
मुझे भी मिल जाता जीवन जीने का मौका.
- प्रीति बिष्ट सिंह
(13 अगस्त, 2010)
Friday, August 13, 2010
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खूबसूरत अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteवर्ड वेरिफिकेशन हटा दें ....टिप्पणी करने में सुविधा होगी ..
जीवन की मझधार में देखो फंस गए,
ReplyDeleteअब क्या करे असमंजस में है पड़ गए.
सुन्दर रचना ...अच्छी प्रस्तुति .!!!!..शब्दों के इस सुहाने सफर में आज से हम भी आपके साथ है ..इस उम्मीद से की सफ़र कुछ आसान हो ..चलो साथ चलते है
अथाह...
बहुत ही भावपूर्ण रचना...
ReplyDeleteमंगलवार 17 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ....आपका इंतज़ार रहेगा ..आपकी अभिव्यक्ति ही हमारी प्रेरणा है ... आभार
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
काश इक बार फिर मिलता निर्णय का मौका,
ReplyDeleteमुझे भी मिल जाता जीवन जीने का मौका.
यही तो बिडम्बना है ये मौका दुबारा नहीं मिलता ..
सुन्दर रचना
Thanks, aap sabhi ka...
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